Authors : पटोले क.क.
Page Nos : 138-142
Description :
समाज तथा राष्ट्र के विकास के लिए नारी का सर्वांगिण विकास अत्यंत आवश्यक है। यह विकास
शिक्षा के माध्यम से ही किया जा सकता है, इस बात पर बल देते हुए नारी जागरण के प्रारंभिक युग में समाज
सुधारकों ने स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। आगे चलकर भारतीय संविधान ने स्वतंत्र भारत के समस्त
नागरिकों को समता का अधिकार दे दिया। फलस्वरूप नारी को सभी क्षेत्रों में पुरूष के साथ समान अवसर
मिल गए। ‘‘स्वतंत्र भारत में धर्म, राजनीति, अर्थ और समाज की दृष्टि से प्रत्येक मानव का समान मूल्य
निर्धारित किया गया और इसी क्रम में नारी का स्वतंत्र और गौरवपूर्ण स्थान स्वीकृत हुआ। नारी पुरूष के समान
प्रत्येक क्षेत्र में भाग लेने लगी।’’ उसने समान अवसर का लाभ उठाते हुए गृहस्थी के सीमित एवं संकुचित दायरे
से निकलकर भारतीय नारी ने उच्च शिक्षा क्षेत्र में कदम रखा और उच्च पद पर कार्यरत हुई। आत्मनिर्भर बनके
अपने व्यक्तित्व का विकास वह स्वयं करने लगी। डॉ.हेमेंद्रकुमार पानेरी के मतानुसार, ‘‘परंपरागत ग्रर्हस्थ एवं
पतिव्रत के परिवेश में कुंठित नारी उच्चशिक्षा और नारी स्वातंत्र्य के प्रभाव में स्वच्छंद जीवन की ओर अग्रेसर
हुई।’’ फलस्वरूप आज की शिक्षित नारी घर तथा कायक्षेत्र के दोहरे कार्यभार को सफलता से निभा रही है।
किंतु दोहरी जिम्मेदारी से उसका जिवन द्वंद्वग्रस्त बन गया है, ना उसे घर में पति का सहयोग मिलता है, और
ना ही कार्यालय में सहकर्मियों का। इसका मूल कारण है, भारतीय पुरूष प्रधान सामाजिक व्यवस्था। वास्तव में
उच्च पदस्थ महिला अधिकारी कार्यकुशल, अनुशासित एवं क्षमतावान होती है, लेकिन पुरूष वर्ग का स्वयं को
महिलाओं से श्रेष्ठ मानने का भाव महिलाओं के सामने कई समस्याएँ खडा करता है। ‘‘एक ओर कार्यभार से
उपजी थकान तो दूसरी ओर परिवारजनों के ताने उसे सहने पड़ते है। नौकरी करते रहना या चाहकर भी छोड़
न पाने की उसकी विवषता दुहरी है। एक ओर घर की आवश्यकताओं द्वारा प्राप्त मजबूरी है तो दूसरी ओर
अपनी शिक्षा और ज्ञान को प्रयोग में ला सकने में आत्मतोष की चाह भी है।’’ परिणामस्वरूप उच्च-शिक्षित नारी
भी अपने व्यक्तित्व की सार्थकता एवं जीवन की विषमताओं के बीच संघर्षरत दिखाई देती है। अपने दासित्व
और पराधीनता के प्रति उसका विद्रोह आज भी जारी है।
बिज शब्द: ‘भारतीय संविधान, दोहरा कार्यभार, उच्च पदस्थ, द्वंद्वग्रस्त, आत्मतोष, दोहरा अभिशाप