Authors : डाॅ. रूमा तिवारी
Page Nos : 277-285
Description :
व्यक्तियों की अभिवृत्तियों का परिष्कार करना दर्शन का कार्य है। हम अपने दैनिक कार्य में अपने दृष्टिकोण से प्रेरणा लेते है। ये दृष्टिकोण अनेक प्रकार के होते है। इसलिये ये कहा जाता है कि महान पुरूषों के अपने-अपने दार्शनिक दृष्टिकोण होते है। जे कृष्णमूर्ति जी का शिक्षा के प्रति अपना अनौखा, नवीन तथा व्यापक दर्शन रहा है।, जिसका प्रस्तुतीकरण प्रकृतिवाद विचारवाद, प्रयोजनवाद तथा यर्थाथजनवाद का सन्दर्भ लेते हुए किया जायेगा। इस प्रकार से अपनी शैक्षिक विचारधारा की विश्वसनीयता स्पष्ट हो सकेगी। महान षिक्षाषास्त्री ‘‘गार्लिक’’ ने षिक्षण के तरीकों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि षिक्षक का निर्णय कि वह क्या पढा़येगा, विषय साम्रगी को व्यवस्थित करना और बाद में वह सोचता है कि वह उनको किस प्रकार से व्यवस्थित करके प्रस्तुत करना है आदि कार्य षिक्षण विधियों में आते है। श्री कृष्णमूर्ति छात्रों पर तथाकथित रूप से थोपे गये अनुषासन के विरोधी है वे छात्र को पूर्ण स्वतंत्रता देने के पक्षधर है किन्तु स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी करना नहीं होता ऐसी स्वतंत्रता तो सर्वत्र अवस्था ही फैलायेगी स्वतंत्रता का अर्थ छात्र को समग्र अवलोकन करने की स्वतंत्रता, जिज्ञासा व्यक्त करने की स्वतंत्रता, षिक्षक से वार्तालाप एवं सन्देह प्रकट करने की निरीक्षण करने की स्वतंत्रता आदि है कृष्णमूर्ति अनुषासन को व्यवस्था का नाम देते है और स्वतंत्रता एवं व्यवस्था का एक सिक्के के दो पहलू मानते है। व्यवस्था स्वाभाविक रूप से खिलने वाला फूल है जो कभी मुरझाता नहीं है क्योंकि यह अन्तरमन की उपज है।